Friday, March 5, 2010

भारत - इंडिया या भिंडिया

''हम एक अजीब देश में रहते हैं, जहां पिज्जा हमारे घर तक एम्बुलेंस या पुलिस की अपेक्षा जल्दी पहुंच जाता है। आपको 8 प्रतिशत के ब्याज पर कार लोन मिलता है जबकि एजूकेशन लोन 12 प्रतिशत के ब्याज पर मिलता है। जहां बच्चे को स्कूल में दाखिला दिलवाना उसके जन्म की प्रसव वेदना से भी अधिक कष्टकर है। जहां कार्य प्रबंधन के लिए योग्यता जरूरी है पर देश प्रबंधन के लिए कोई योग्यता नहीं चाहिए।'' मेरे मोबाइल फोन पर जबसे यह मैसेज आया मैं नाचते मोर की तरह अपने कुरूप पंजे देखकर रो दिया। मोर हमारा राष्ट्रीय पक्षी है। दंत कथा इस प्रकार है कि मोर जब अपनी ही सुन्दरता पर आत्म मुग्ध होकर नाचता है तो नाचते-नाचते अचानक उसका ध्यान अपने पंजों पर जाता है और वह पाता है कि उसके शेष शरीर के सौंदर्य की अपेक्षा उसके पंजे कुरूप हैं और वह आत्म मुग्ध मोर रो पड़ता है। देश की आर्थिक राजधानियों, प्रदेश की राजनीतिक राजधानियों में यह नाचता हुआ आत्म मुग्ध राष्ट्र भी रो रहा है अपने पंजे यानी बुनियाद यानी जन-गण-मन का विद्रूप चेहरा देखकर।
 
राष्ट्र का निर्माण लोहे, सीमेंट, कल कारखानों, सड़कों, मकानों, बम्बे-खम्बे, पुल-पुलियों से स्मारकों से नहीं होता। राष्ट्र का निर्माण हर बच्चे के जन्म से शुरू होता है। जब कोई दादा पोते को पहली बार स्कूल ले जा रहा होता है तो नन्हें कदमों से राष्ट्र चल रहा होता है। इस बजट में भी राष्ट्र के पंजों को सुन्दर बनाने का कोई प्रयास नहीं हुआ है। ढांचे और आधार-भूत ढांचे की तो लम्बी व्याख्यान माला है पर उस ढांचे की आत्मा का कोई प्रस्ताव ही नहीं। जो राष्ट्र अपने बच्चों को समान शिक्षा भी अभी तक नहीं दे सका वह समाज के किस तबके का राष्ट्र है किसका नहीं अब तय हो ही जाना चाहिए। मुम्बई, कलकत्ता, दिल्ली जैसे शहरों में मालिकों के बच्चे मालिक बनने के लिए पढाई-पढाई खेल रहे हैं। नौकरों के बच्चे अगली पीढ़ी का नौकर बनने के लिए अपना बचपना स्कूलों के कोल्हू में पेर रहे हैं और दूर देहात में टाट-पट्टी वाले स्कूलों के बच्चे सत्ता के नौकरों का नौकर बनने का सपना संजोए गोबर से अपने स्कूल का आंगन लीप रहे हैं।
 
वह यानी सत्ता के सारथी इस देश में एक से स्कूल, एक सी शिक्षा इसीलिए नहीं रखना चाहते क्योंकि वह चाहते हैं कि उनका बेटा देश का मालिक और आपका बेटा या तो नौकर बने या उस नौकर का चाकर यानी चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी। कुल मिलाकर जब आपका बेटा इस शिक्षा पद्धति में थोड़ा-बहुत पढ़ जाएगा तो नौकर बनने के सिवा और कर भी क्या पाएगा? - वह यही चाहते हैं। नौकर ढालने की इस औद्योगिक इकाई का नाम है 'स्कूल'। यह पाठशालाएं मंथरा के बेटों की हैं, किसी लव-कुश की नहीं। इस बात पर दूसरे पहलू से भी गौर करें। देश को प्रधानमंत्री देने वाले निर्वाचन क्षेत्रों पर नजर डालें। फूलपुर, रायबरेली, चिकमंगलूर, बेल्लारी सभी में शिक्षा का प्रसार अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा कम रहा है। यानी अल्पशिक्षित लोग ही देश को प्रधानमंत्री देते हैं। अभी तक किसी भी प्रधानमंत्री का निर्वाचन क्षेत्र दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता नहीं रहा।
 
बहुत देख चुके किसी राहुल, प्रियंका, सचिन, नितिन की ओर थोड़ी देर को अपने छोटे से बच्चे के हाथ को भी देखो। गौर से देखो उसके हाथ में अंगूठा नहीं है। इस सदी का एकलव्य है वह। बिना संसाधनों के उसे इन रईसजादों से टक्कर लेनी है। संसाधनों और सोर्स सिफारिश का अंगूठा उसके हाथ में नहीं है। भाग्यवानों के बेटे ही भाग्यवान होते हैं चूंकि वह अभाग्यवानों का बेटा है इसलिए वह इस राष्ट्र निर्माण के कथित कारखाने का कच्चा माल है। बिल्कुल किसी कोयले की तरह खुद जलकर ऊर्जा देना जिसकी नियति है।
 
तुम्हारी गुलामी के विरोध में एक गांधी, एक भगत सिंह, एक सुभाष भी खड़ा था लेकिन तुम हो कि अपनी औलाद की गुलामी के विरुद्घ कुछ बोलते ही नहीं। गांव के जुगनू और शहर की ट्‌यूबलाइट के बीच का अन्तर तुम्हे ही पाटना होगा। गिल्ली-डंडा और गोल्फ के बीच भारत बनाम इंडिया की 'भिंडिया' अपनी राष्ट्रीय परिभाषा तलाश रही है। रौशनी, रास्ते, राशन और रोजगार सभी पर शहरों का कब्जा है और सोडियम लैम्प सिर्फ राजधानी की सड़कों पर ही जगमगा रहे हैं जबकि दूर देहात के असली भारत में अभी अंधेरा है। इस अंधेर और अंधेरे के खिलाफ क्यों खून नहीं खौल रहा?
 
राष्ट्र निर्माण के लिए हम क्या कर ही रहे हैं? 'बजट' हमारी योजनाओं का आईना होता है। बजट की समीक्षा से सरकार का 'वरीयता क्रम' स्पष्ट हो जाता है। बजट पर गौर करें। दोहरे मानदण्ड हैं। अमीरों के उपभोग के लिए 'उपभोक्ता सूची' और गरीबों के लिए 'कुल घरेलू उत्पाद'। बात साफ है कि अमीरों को वह सभी सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं कि जिनका वह उपभोग करना चाहते हैं और गरीब बताएं कि उन्होंने राष्ट्र निर्माण में क्या योगदान दिया यानी 'कुल घरेलू उत्पाद'। दूसरे शब्दों में अमीर बताएं कि वह साल भर में राष्ट्र को कितना कुतर-कुतर कर खा सकते हैं और गरीब पहले अपनी उत्पादकता सिद्ध करें फिर अपना हक मांगे। गरीबों को शिक्षा, चिकिˆसा, स्वास्थ्य, न्याय, रोटी, कपड़ा और मकान उसकी उत्पादकता के अनुपात में ही मिलेगा। परिणाम शिक्षक, सिपाही, किसान, सैनिक सभी वंचितों की सूची में सरकते जा रहे हैं और शेयर दलाल, फिल्मी कलाकार, नाचने गाने वाले, सारंगी मजीरे बजाने वाले, खेलने-कूदने वाले सभी सम्प‹न होते जा रहे हैं। दूसरे शब्दों में देश के लिए जान देने वालों की कतार अब कातर हो परजीवियों को देख रही है। इस राष्ट्र के कानों में गूंज रही है राष्ट्रगान की धुन और देह में लगा है परजीवी घुन। राष्ट्र का निर्माण नहीं क्षरण हो रहा है। है किसी के पास इस क्षय रोग का इलाज।
 
(Published in By-Line National Weekly News Magazine (Hindi & English) - in March 13, 2010 Issue)

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