Friday, February 26, 2010

Happy Holi-burning Prahlad

The words of greeting 'Happy Holi' leave me stunned. So would Prahlad. On whose side do you stand – Holi or Prahlad? Since you don't want to sound pretentious therefore you speak from your heart – Happy Holi. But is it because you too want to hatch a conspiracy to get rid of Prahlad? So far, you seem to have succeeded. But what next?
One can see Holika at different places sitting with Prahlad in her lap. The fire has been lit so that Prahlad perishes in it and the demon Holika emerges unscathed. But legend has it that Holika was charred to death, falling a victim to her own conspiracy, and Prahlad was safe. But it appears that the present-day civilisation is not happy on Prahlad's survival and Holika's demise. So, the people wish everyone 'Happy Holi.'  We have been caught in the web of witches. We are standing by the side of a witch like Holi and raising voice against Prahlad. It is our irony. Everywhere a conspiracy is being hatched to kill the good and honest Prahlad, and Holi has the responsibility to carry it out. Take the budget. The Holi of Manmohanomics has taken the republic – like Prahlad - in its lap and sitting on the pyre. The flame of outrage is burning in our hearts, and people like us are adding fuel to the fire, and shouting 'Happy Holi'. The orphaned Prahlad asks everyone in despair – Does anyone have the balm for his wounds?
Generally in every household there are a couple of Prahlad like smart and innocent children. Over the years we have been making provisions in our budget to ensure the gloomy future for our young citizens. In a country where young Prahlads have to take loan for their education, queries on their self respect are but natural. People who wish a Happy Holi on this occasion are definitely class enemies of characters like Prahlad.
The legend has it that Hiranyakashyap and his sister Holika were the meanest creatures on earth. He had a son Prahlad. Prahlad represented the young generation, so he had his own ideals and principles. He knew how to stand and fight for his principles. He opposed the immoral deeds of his corrupt father. So, his father Hiranyakashyap, along with his sister Holika, hatched a conspiracy to kill him. Holika was a corrupt lady but was blessed that no fire could harm her. So, the conspiracy was that Holika would enter the fire with young Prahlad in her lap. With the blessing, Holika would emerge unscathed from the fire while Prahlad would perish – and Hiranyakashyap will have his way. But nothing of this sort happened. While Holika perished and was burnt to ashes, nothing happened to the honest and principled Prahlad, who emerged safe from the burning pyre. And see the irony, today we exchange greetings of Happy Holi by apparently celebrating the survival of the wicked Holika!
Those who are prosperous and lead colourful lives, are happy and delighted. The rest of the people are trying to infuse some colour into their lives with borrowed colour. But can this borrowed, external colour actually bring any colour into our lives? Today happiness is being marketed and our silent wishes are trying to appear happy. Neither the sellers nor buyers of happiness are happy. Actually it is a mirage in which we have outlived our lives in an attempt to gather our joys. Doubt lingers over the rest of our lives, and happiness appears far away – across the horizon, like a mirage. This is what the Manmohan theory has devised for us in this budget.
Sonia, Priyanka, Ambika Soni, Sheila Dixit, Mamta Bannerjee and Mayawati – all are symbols of Happy Holi. And what is in store for young Prahlads of this nation? A police bullet?
Let us identify and recognize the Prahlad who is a question mark on our character. Young Prahlads! Burn the Holi and know the Prahlad within yourself... and make him stronger.
We are being made poorer in easy instalments. Once we become poor, we will naturally become slaves. When enslaved, this independence will have no meaning. They want this to happen. Many Rahuls, Priyankas, Sachins, Jatins of this country want servants for their homes and therefore a movement is on to make servants out of the citizens of this country. Domestic servant, shop attendant, factory labour, different category of government servants – children of our independent country dream of becoming servants. Gandhi had fought to stop our people become servants of white masters. But we remain slaves by mentality, so we are out to search slavish talent in everyone. On becoming servants, we indulge in robbery and bribery, and celebrate the burning of the values of honesty represented by Prahlad, and shout like demons – 'Happy Holi.'
 
(Published in By-Line National Weekly News Magazine (Hindi & English) - in March 06, 2010 Issue)

हैप्पी होली – सुलगता प्रहलाद

हैप्पी होली – सुनकर मैं तो स्तब्ध हूँ। प्रहलाद दुखी ही होगा। आप किसके पाले में हैं होली के या प्रहलाद के? इसीलिए कि आप छद्‌म नहीं करना चाहते और अपने अन्र्तमन की आवाज से बोलते हैं - ''हैप्पी होली'' क्योंकि आपकी भी मंशा कहीं किसी प्रहलाद को षड्‌यंत्र करके मारने की ही है। आप अभी तक सफल प्रतीत होते हैं। आगे?
 
जगह-जगह होली प्रहलाद को गोद में लिए बैठी है। आग भी लगाई जा चुकी है ताकि प्रहलाद जल जाए और डायन राक्षसी होली बच जाए। हुआ यह था कि होली अपने ही षड्‌यंत्र का शिकार हो जल गई थी और प्रहलाद बच गया था पर यह सभ्यता उस खलनायिका होली के यों जल जाने और प्रहलाद के बच जाने से दुखी है सो होली को शुभकामनाएं दे रहे हैं - ''हैप्पी होली''। चुड़ैलों के चंगुल में फंस चुके हैं। हम होली जैसी पिशाचनी राक्षसी खलनायिका के साथ खड़े हैं और प्रहलाद के विरुद्ध चीख रहे हैं।
 
हर जगह चरित्रवान, ईमानदार प्रहलाद को जलाकर मार डालने के षड्‌यंत्र हो रहे हैं और होली को यह दायित्व है। इस बजट को ही देख लें। प्रहलाद रूपी जन-गण-मन को मनमोहनी अर्थशास्त्र की होली गोद में लेकर बैठ चुकी है। आक्रोश की वाला सुलग रही है और हमारे जैसे लोग उस आग में घी भी डाल रहे हैं पर चिल्ला रहे हैं हैप्पी होली, लावारिस प्रहलाद प्रश्न पूछ रहा है कि किसी के पास वह मरहम है जो मेरे जले जज्बातों के जख्मों पर लगाई जा सके। है किसी के पास बरनॉल जैसी कोई मरहम। प्राय: हर घर में एक दो बच्चे हैं प्रहलाद जैसे सुन्दर और निश्छल। हमारे देश में नन्हें नागरिक जिनकी उदासी का प्रबन्ध साल दर साल बजट पर हम कर ही लेते हैं। जिस देश के नन्हें प्रहलादों को शिक्षा के लिए भी ऋण लेना पड़ रहा हो वहां तरुणाई के स्वाभिमान पर संदेह के सवाल स्वाभाविक रुप से उठेंगे ही। निश्चय ही वह लोग जो इस तरह होली को अपनी शुभ कामनाएं दे रहे हैं वह प्रहलाद जैसे चरित्रों के वर्ग शत्रु हैं।
हिरण्यकश्यप और उसकी बहन होलिका बहुत हरामखोर, घूसखोर थे। हिरण्यकश्यप का एक बेटा था प्रहलाद। प्रहलाद युवा वर्ग का प्रतिनिधि था सो उसके सिद्धान्त थे। सिद्धान्त के लिए उसे लड़ना आता था, अड़ना भी आता था। वह समझौतावादी नहीं था। वह अपने घूसखोर, दलाल पिता हरामखोर हिरण्यकश्यप के अनैतिक कामों घूसखोरी, कालाबाजारी का विरोध करता था। सो उसके पिता हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका के साथ मिलकर उसको मारने का षड्‌यंत्र बनाया। होलिका का अपने जमाने के किसी फायरब्रिगेड अधिकारी से ईलू-ईलू था सो उसे वरदान था कि वह आग से नहीं जल सकती। इसलिए तय हुआ कि होलिका अपनी गोद में प्रहलाद को लेकर आग में चली जाएगी और होलिका तो जलेगी नहीं पर प्रहलाद जल जाएगा। लेकिन हुआ उल्टा, होलिका ही जल गई और बचा सिद्धान्तवादी नैतिक ईमानदार कर्मठ प्रहलाद। हम हरामखोर होलिका के पक्षधर हैं और कह रहे हैं ''हैप्पी होली''।
 
एक औसत भारतीय नागरिक जब दिन भर हलाल होता है तो उसकी आमदनी 32 रुपये प्रतिदिन होती है। इसी में उसे अपना और अपने प्रहलाद जैसे बच्चों का भी पेट पालना है लेकिन हरामखोर हिरण्यकश्यपों-होलिकाओं की मौज है। पाकिस्तानी आतंकी कातिल कसाब पर यह सरकार प्रतिदिन 8 लाख पचास हजार रुपये खर्च कर रही है और इस प्रकार गुजरे 15 महीनों में उस पर 39 करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं। यह रुपया आपका है किसी हरामखोर के बाप का नहीं। ये पैसा आपसे टैक्स में वसूला गया है। और करो हैप्पी होली।
 
जिन लोगों की जिन्दगी रंगीन है वह आनन्दित है शेष बची देश की जनता बाहरी रंगों से अपनी बदरंग हो चुकी जिन्दगी को रंग रही है। यह ऊपर से पड़ा रंग क्या हमारी जिन्दगी को रंगीन बना सकेगा? खुशियां बाजार में बिक रही हैं और ख्वाहिशें खामोश खीसें निपोर रही हैं। न खुशियों के विक्रेता खुश हैं न क्रेता। दरअसल यह मरीचिका है कि जिसमें हम खुशियों को अपनी गिरफ्त में लेने के लिए उम्र से अधिक सांसे ले चुके हैं। श्षो बची जिन्दगी पर संशय है और खुशियां अभी भी दूर बहुत दूर क्षितिज के उस पार यही मरीचिका है जिसे इस बजट में मनमोहन शास्त्र ने गढ़ा है।
 
सोनिया, प्रियंका, अम्बिका सोनी, शीला दीक्षित, ममता बनर्जी, मायावती यानी कि हैŒपी होली और आपके नन्हें नागरिक किसी प्रहलाद को पुलिस की गोली। प्रहलाद हमारे चरित्र पर प्रश्न है पहचानो। युवाओं! प्रहलादों!! जला डालो होली को अपने अन्दर के प्रहलाद को प्रखर करो, मुखर करो।
 
हम आसान किस्तों में गरीब बनाए जा रहे हैं। गरीब होंगे तो गुलाम बन ही जाएंगे। गुलाम होंगे तो यह आजादी किस काम की। वह यही चाहते हैं। तमाम राहुल, प्रियंका, सचिन, जितिन जैसे लोगों को अपने यहां नौकर चाहिए इसीलिए इस देश के नागरिक को नौकर बनाने का उपक्रम जारी है। घरेलू नौकर, दुकान का नौकर, कल कारखानों का नौकर, विभिन्न श्रेणी का सरकारी नौकर। स्वतंत्र राष्ट्र में हमारे बच्चों का सपना है नौकर बनना।
 
हमारे बच्चों को गुलामी से गोरे साहब के नौकर बनने से बचाने के लिए गांधी जूझा, हमें आजाद किया ताकि हम गुलाम या नौकर न बनें पर हम तो ठहरे प्रवृत्ति से गुलाम सो नौकर बनने में प्रतिभा की पहचान करते हैं। नौकर बनकर चोरी घूसखोरी करते हुए फिर ईमानदारी के प्रहलादों को जलाकर उत्सव मनाते हैं और चाण्डालों की तरह चिल्लाते हैं - ''हैप्पी होली''
 
(Published in By-Line National Weekly News Magazine (Hindi & English) - in March 06, 2010 Issue)

Friday, February 19, 2010

Fragrance of Fire

"Snake or saint make no difference
fire of forest reduce them to ashes alike
Our habitat also engulfed in the same fire."

The country is akin to the forest that has been engulfed by fire. Fire and pyre have most elements in common except the element of life. We examine multiples of fortune or misfortunes of this fire but all these equations would end in ashes. Now, dear editors, writers, readers, and citizens at large, it is for you to decide and opt accordingly – whether you need 'ash' or 'fire'. I have my own opinion and if you agree, support me.
 
If words are capable to ignite a fire, then together they will make a furnace. But such words in fire would also create a fragrance – a fragrance that can be perceived by anyone. The remaining words, which failed to ignite a fire, would not be perceived by anyone, and they will deceive you, so they deserve rejection. See across the smoke coming out of the forest and the fog and you will find the truth. We are writers, editors, conveyer and merchants of this truth. We are the fire not the ash. Our burning eyes are frisking the fog and smoke. We have our eyes on those who are scripting the obituary of the Nation. It would always be better to talk of resolution rather than desolation or of conviction instead of connivance. Connivance is a sort of compulsion that will lead us to a holocaust.
 
Marie Antoinette was the Queen of France. She was extremely beautiful but ignorant of ground realities. When the starving citizens gathered around the fort demanding food and shouted slogans Marie peeped down from the window and anxiously asked her hostess why were the people shouting. The hostess replied that the people were crying out as they are not getting bread. Marie, the queen, quipped "…if they are not getting bread they should eat cake instead." This innocent statement with a touch of imbecility added fuel to fire that led to what we today call the French Revolution. In our country, there are several Antoinettes in almost all the political parties but there is a dearth of writers and journalists like Russo and Voltaire who can make our society more sensitive.
 
For we, the indians Melbourne and Mumbai are all alike. We are being driven out of every place everywhere. Have a look at the kind of treatment we are being subjected to. Nobody is bothered about Kashmiri Pandits who were driven out from their own state and living in refugee camps for the last two decade. Chief Minister of Delhi Sheila Dixit suggests that girls should return home before night and if they want to move after dusk then they should not blame the law and order but their conduct. Prime Minister shrugs his responsibilities to check the price rise and shifts it to Agriculture Minister. Agriculture Minister Sharad Pawar says "…what should I do to check price rise? I am not a palmist." Railway Minister reiterates that if you feel that now-a-days travelling by train has become dangerous and risky then stop travelling by train. Another minister Shashi Tharoor some time ago made a remark on 'general class' of aircraft by calling it a 'cattle class.'
 
On this Republic Day the Chief Minister of Jammu and Kashmir could not muster the guts to unfurl the National Flag at Srinagar. Why? Look at the answer given by this minister Omar Abdullah: "By this friendly gesture we could pacify the separatists. We don't want to provoke them as they have started loving peace". Unfurling of our National Flag within our national territory lies on the mercy of terrorists and separatists. The same day the scene in the National Capital was not much different as there one dreaded terrorist of J & K namely, Gulam Muhammad Mir was decorated with Padmashri. Where the competence and capabilities do not count but the sycophants successfully sail the system. Where the charlatans rule the roost everywhere in the country be it President or Prime minister. Where there is a hue and cry for 'reservation' to eat the cake of corruption, not to die for nation. Where the judicial anarchy is busy in conflict with legislative degeneration; where evil is enjoying the fruits and genuine citizens are being condemned in every walk of life, obviously there would be decline in democratic dignity. In this increasing darkness, people's hopes are pinned on the Press. But the journalist fraternity has also put their arms in same gloves. By and large the Press has become a party to all these malpractices. We are the designer, distributor, editor and writer of fire to keep your furnace of inner soul alive otherwise this system is making pyre ready for us. We are conscious that our words are providing fuel to the fire of discontent as we want to keep it burning. We know the determining difference between fire and pyre.
 
(Published in By-Line National Weekly News Magazine (Hindi & English) - in February 27, 2010 Issue)

सुलगते शब्दों की सुगन्ध

''साधु हो या सांप नहीं अंतर कोई,
जलता जंगल दोनों को साथ जलाता है।
कुछ ऐसी ही है आग हमारी बस्ती में...''

यह किसी कविता की लाचार लाइनें नहीं हकीकत है। देश जंगल में बदल रहा है और जंगल जल रहा है। इस आग के गुणनफल की गुणात्मक विवेचना तो करेंगे ही पर शेषफल तो राख ही होगा। अब तय करो हे संपादकों, लेखकों, पाठकों और नागरिकों कि आपके शब्द 'राख' हों या 'आग'। मैं अपना मत व्यक्त करता हूं, सहमत हो तो साथ देना।

शब्द अगर ज्वलनशील होंगे तो आग में दहकेंगे। दहकेंगे तो महकेंगे। महकेंगे तो महसूस होंगे। कुछ शब्द महसूस होंगे तो शेष बचे मनहूस भी। उन्हें खारिज कर दो। जलते जंगल के धुएं और जलते शब्दों के धुंध के उस पार 'सच' है। देखो! हम सुलगते शब्दों के लेखक, संपादक, संवाहक और सौदागर हैं। हम आग हैं, राख नहीं। हमारी जलती निगाहें हर धुंध और धुएं की जामा तलाशी ले रही हैं। जनतंत्र का जनाजा निकालते लोगों की जामा तलाशी लेना भी हमारा संकल्प है। हम संकल्प की ही बातें करें तो बेहतर होगा। विकल्प तो विवशता है। विवशता विनाश की दहलीज है।
फ्रांस के राजा लुई चौदहवें की पत्नी थीं मैरी एन्टोइनेट। अप्रतिम सुंदर किन्तु सच से अनभिज्ञ। भूखे बिलखते लोगों ने जब राज प्रासाद घेरा तो मैरी एन्टोइनेट ने पूछा यह लोग हा-हाकार क्यों कर रहे हैं? उसकी परिचारिका ने बताया कि लोगों को रोटी नहीं मिल रही। बड़ी मासूमियत से मैरी एन्टोइनेट ने कहा- ''जब लोगों को रोटी नहीं मिल रही तो केक क्यों नहीं खा लेते हैं।'' इसी बात से पैदा हुए झंझावात को फ्रांस की क्रांति कहते हैं। जनता फ्रांस के किले में घुस पड़ी मैरी एन्टोयनेट का सिर मुड़वा कर जूते मारते हुए, उस पर थूकते हुए, फ्रांस की गलियों-सड़कों में उसका जुलूस निकाला गया। भारत में भी फ्रांस की तरह की कई रानी-राजा मैरी एन्टोइनेट नुमा व्यवहार कर रहे हैं पर फ्रांस की क्रांति सुलगाने वाले रूसो, वॉल्टेयर सरीखे लेखक, पत्रकार हैं ही नहीं, जो किसी समाज को चेतन, ज्वलनशील बनाते हों।
उत्तर भारतीयों को जो खतरा मेलबोर्न में है वही मुंबई में। पीट-पीट कर भगाए जा रहे हैं। स्वाभिमान की कसौटी पर सवाल यह नहीं कि हम बार-बार लगातार पीटे जा रहे हैं। सवाल यह है कि यह पिटाई स्वदेसी है या विदेशी? जम्मू-कश्मीर से विस्थापित कश्मीरी पंडितों की सुध किसी को नहीं। उनके पुर्नवास की परवाह में अब कोई परेशान भी नहीं क्योंकि वहां अब उनका वोट बैंक भी शेष नहीं बचा।
दिल्ली की महिला मुख्यमंत्री कहती हैं लड़कियां शाम के बाद घर से न निकलें वरना अपनी असुरक्षा की वह स्वयं जिम्मेदार होंगी। देश का प्रधानमंत्री कहता है मंहगाई के लिए कृषिमंत्री जिम्मेदार हैं। कृषि मंत्री शरद पवार कहते हैं, चीनी महंगी हो गई तो मैं क्या करूं? कब सस्ती होगी? यह पूछे जाने पर कहते हैं मैं क्यों बताऊं, मैं कोई ज्योतिषी नहीं हूं। साथ में यह सलाह भी देते हैं कि चीनी महंगी होने से कई फायदे हैं। चीनी महंगी हो गई तो अब आप मजबूरन इसे कम खाएंगे और इससे आपकी डायबिटीज होने की संभावना कम हो जाएगी। रेलमंत्री कहती हैं कि रेल में यात्रा करना यदि अब असुरक्षित हो गया है तो रेल से मत चलो। हवाई जहाज के भी सामान्य दर्जे को शशि थरूर का गरूर 'मवेशी क्लास' बताता है।
इस गणतंत्र पर जम्मू-कश्मीर की राजधानी श्रीनगर में तिरंगा ही नहीं फहराया गया। क्यों? जवाब देखिए। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला फरमाते हैं कि यह करके हम चुप हो चले अलगाववादियों को उकसाना नहीं चाहते थे। मतलब कि अब देश के किसी कोने में तिरंगा फहराना भी देशद्रोहियों के रहमो करम पर निर्भर है। श्रीनगर में गणतंत्र पर गद्‌दारों की गुस्ताखी ठीक उस समय हो रही थी कि जब लालकिले पर जम्मू-कश्मीर के एक आतंकवादी गुलाम मुहम्मद मीर को देश की सर्वोच्च सत्ता पद्मश्री से सम्मानित कर रही थी।
जहां प्रतिभा और पराक्रम से नहीं महज परिक्रमा से ही देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री बनते हों। जहां देश पर मरने के लिए जातीय आरक्षण की मांग कभी न उठी हो लेकिन देश को मारने के लिए हर आदमी आरक्षण चाह रहा हो। जहां जज जिद्‌दी, विधायिका बांझ, शातिर सुख में और सूरमा सूली पर हों वहां के लोकतंत्र में लोकलाज भला कहां से होगी। ऐसे में पत्रकारिता से अपेक्षाएं थीं पर अब पत्रकारिता और चाटुकारिता के बीच की गली से होकर शब्दों की जो शवयात्रा निकल पड़ी है उसका आखिरी पड़ाव है दाह संस्कार। पर इस दाह से भी क्या 'शब्द' संस्कारित होंगे और सुलगने लगेंगे? यही अन्तर है 'सुलगने' और 'दहकने' में। अंतरचेतना से जो जलता है उसे 'सुलगना' कहते हैं और बाहरी आग जिसे जला दे उसे 'दहकना' कहते हैं।
हम सुलगते शब्दों के शिल्पी हैं, संपादक और सौदागर भी। क्या आप में सच की वह धार्यता है? यदि हां, तो आओ दो कदम तुम भी आगे बढ़ो, हमारे कदम से कदम, कंधे से कंधा मिलाओ, हाथ से हाथ मिलाओ। हां, अगर आपको दाह संस्कार के लिए तैयार दहकते शब्दों की दरकार है तो हाथ न मिलाना या तो आप सुलग जाओगे या मैं शीतल हो जाऊंगा। मुझे अभी जलना है मेरे मित्र। अगर मिसाल नहीं बन सका, अगर मशाल भी नहीं बन सका तो अगरबत्ती की तरह ही जल लूंगा। अगरबत्ती की तरह जलते हुए भले ही प्रकाश न फैला सकूं, सुगन्ध फैलाने का हक है मुझे। कोई नहीं छीन सकता सुलगते हुए शब्दों की सुगन्ध।
(Published in By-Line National Weekly News Magazine (Hindi & English) - in February 27, 2010 Issue)

Friday, February 12, 2010

Hail Utsav

Utsav Sharma has shown a mirror to the country's shameless establishment – that includes police and judiciary. His aggression has added to our self-confidence. It has indicated that possibilities still remain. Only the youth can do it – as Utsav did. DGP  S P Rathore, the tainted police officer of Haryana, has once again been saved by the police and establishment. Ironically, this officer never went to jail in the Ruchika case, whereas his attacker Utsav is in jail now. We are grateful to Utsav, as we were ashamed of Rathore.

Utsav's background is relevant. His father S K Sharma is a professor in mechanical engineering, and mother Prof Indira Sharma has been the head of the psychology department. The teacher couple is among the highly-respected faculty members in the Benares Hindu University (BHU). Their only son Utsav too has been a bright student and a gold medalist in Fine Arts from the BHU. At present, he is said to be working on an animation film project. He used to express his intolerance for growing injustice in society. He was not a pretender and therefore instead of slogan-raising, he acted with aggression. Utsav has proved once again that the youth of India still has the capacity to fight injustice while the establishment is deployed in protecting the devils.

A question to our media friends - where were they when this Haryana DGP used to indulge in character assassination in typical police style? Since he was the DGP then therefore most journalist friends did not take the risk of writing about his exploits. About ten years ago, I had written a book Aartnaad – Manav adhikaro ki upeksha aur apeksha (The Outburst – Expectations and Disregard of Human Rights) and some parts of the book are being reproduced here so that our readers can learn the truth about Rathore.

"Ruchika Girhotra was a promising 14-year-old tennis player. She was the daughter of a bank officer and studied in an elite public school in Panchkula near Chandigarh. Rathore was then the IG of Police and also president of the newly – formed Haryana Lawn Tennis Association. On August 12, 1990, Ruchika and her friend Rimu reached the association office that functioned from a garage in Rathore's house. Rathore sent Rimu out on some pretext and molested Ruchika. Ruchika mentioned this to Rimu but not to her parents. On the second day, Rathore sent a policeman to Ruchika's house to call her but she declined, scared of a repetition of the previous day's incident. The policeman got annoyed and a scared Ruchika went to Rimu's house and narrated the entire story to her mother. Rimu's mother Mrs Madhu Prakash mentioned the incident to Ruchika's parents. Ruchika's father made a written complaint to the state's home commissioner, who ordered the state's police chief to inquire into the matter. In the inquiry, the allegations were prima facie found to be correct and an order to file charges against him was issued. After this, the file got lost in bureaucratic maze for several years but an arrogant Rathore did not leave Ruchika alone. Goons in plainclothesman kept on harassing Ruchika and she had to leave school. Her younger brother aged just nine years was framed in 11 criminal cases. It is remarkable that all these cases were lodged after Rathore's attempt to molest Ruchika. Her family became quite helpless in protecting her. Fed up with police harassment, Ruchika committed suicide on December 29, 1993. It took another seven years for Mrs Madhu Prakash to arrange documents and locate files that had been pronounced as lost by corrupt clerks."

Finally, on the intervention of the Supreme Court, the CBI filed a charge sheet against Rathore under sections 364, 376/511 (attempt to molest and rape) of the IPC. The case was heard, the judgment was pronounced but Rathore did not go to jail even for one day, although Utsav is in jail. The establishment even then was protecting the pervert Rathore, and even now, when a frustrated citizen has taken the law into his own hands, the system appears on Rathore's side as his protector. What can a hapless citizen do? In this suffocating environment, a frustrated young man has shown that the youth still has the urge and will to be a good student as well as fight for a good cause. The nation is at crossroads and has to decide whether it needs people like Chatwal or Saif, or young men like Utsav Sharma who are brilliant students and yet fight back. It seems that in a corner of the country, Bhagat Singh is still alive. Thanks to Utsav.
 
(Published in By-Line National Weekly News Magazine (Hindi & English) - in February 20, 2010 Issue)

धन्यवाद! उत्सव शर्मा

उत्सव शर्मा देश की उस बेशर्म व्यवस्था को आईना दिखाता है कि जिसमें पुलिस से लेकर न्यायपालिका तक शामिल है। उत्सव के उत्साह ने हमारा आत्मविश्वास बढ़ाया है। क्रमश: पलायन करता विश्वास ठहर गया, लगा कि अभी शेष है सम्भावना। युवा ही कुछ कर सकते हैं। उत्सव ने कर डाला। हरियाणा के जिस चरित्रहीन डीजीपी राठौर को तब भी पुलिस और यह व्यवस्था बचा रही थी, उसने इस बार भी इसे बचा लिया। विडम्बना देखिए कि रुचिका मामले में यह राठौर कभी जेल ही नहीं गया और राठौर पर हमला करने वाला उत्सव आज जेल में है। चूंकि राठौर हम पर भारी था इसलिए हम उत्सव शर्मा के आभारी हैं।
 
उत्सव की पृष्ठभूमि प्रासंगिक है। उत्सव के पिता प्रोफेसर एस के शर्मा मैकेनिकल इंजीनियरिंग के प्राचार्य और मां प्रोफेसर इंदिरा शर्मा मनोविज्ञान की विभागाध्यक्ष रही हैं। यह दम्पति बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी का अति आदरणीय शिक्षक दम्पति माना जाता है। इनका इकलौता बेटा 'उत्सव शर्मा' भी बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी का फाइन आर्ट का स्वर्णपदक प्राप्त स्नातक है और वर्तमान में वह एनीमेशन फिल्म पर काम कर रहा था। वह प्राय: समाज में बढ़ते अन्याय को असहनीय बताता था। वह पाखंडी नहीं था इसलिए नारेबाजी करने के बजाय प्रतिकार करने की पहल भी उसी ने की। उत्सव शर्मा ने सिद्ध कर दिया है कि देश की तरुणाई में अभी भी अन्याय का प्रतिकार करने की दम है और व्यवस्था राक्षसों की रक्षा में मुस्तैद। उत्सव शर्मा आज जेल में है और राठौर कभी भी जेल नहीं भेजा गया, यह भी एक सवाल है।
 
सवाल पत्रकार साथियों से भी है कि वे तब कहां थे जब हरियाणा का यह डीजीपी पुलिसिया रौब में दुर्योधन बना चारित्रिक चीर हरण किया करता था। तब वह डीजीपी था। अधिकांश पत्रकार साथी 'रिस्क' नहीं लेना चाहते थे। लगभग 10 वर्ष पहले मैंने एक किताब लिखी थी ''आर्तनाद-मानवाधिकारों की उपेक्षा और अपेक्षा'' के अंश को यहां प्रस्तुत कर रहा हूं ताकि पाठक राठौर का सच भी जान सकें।
 
''रुचिका गिरहोत्रा उस समय 14 वर्षीय उदीयमान टेनिस खिलाड़ी थी। वह एक बैंक अधिकारी की लड़की थी और चंडीगढ़ के पास स्थित पंचकुला के एक अभिजात्य स्कूल की छात्रा थी। एस पी राठौर उस समय पुलिस महानिदेशक (आईजी) थे और नई बनी हरियाणा लॉन टेनिस एसोसिएशन के अध्यक्ष थे। 12 अगस्त, 1990 की बात है रुचिका और उसकी साथी रीमू एसोसिएशन के ऑफिस पहुंचे कि जो राठौर के निवास में ही गैरेज में बनाया गया था। राठौर ने रीमू को किसी बहाने से बाहर भेज दिया और रुचिका के साथ कामांध होकर छेड़छाड़ की। यह बात यद्यपि रुचिका ने रीमू को तो बताई लेकिन अपने माता-पिता को नहीं बताई।
 
दूसरे ही दिन यानी 13 अगस्त को राठौर ने एक दारोगा को रुचिका को बुलाने उसके घर भेजा। सहमी हुई रुचिका ने गुजरे दिन की अशोभनीय घटना की पुनरावृत्ति के भय से जाने से इनकार किया, जिस पर दारोगा का रुख सख्त हुआ।
 
इस प्रकार पुलिस महानिदेशक राठौर को 'खुश' करने से मुकरने के अंजाम से आशंकित रुचिका अपनी मित्र रीमू के यहां पहुंची और वहां रीमू की मां को सारी दास्तान बताई। रीमू की मां श्रीमती मधु प्रकाश ने यह घटना रुचिका के माता-पिता को बताई।
 
रुचिका के पिता ने पूरे मामले की लिखित शिकायत राज्य के गृह आयुक्त से की जिन्होंने सम्पूर्ण प्रकरण की जांच राज्य पुलिस के मुखिया द्वारा किए जाने के आदेश दिए। जांच में राठौर पर लगे आरोप प्रथम दृष्टया सही पाए गए कि जिसके आधार पर राठौर के खिलाफ अभियोग दर्ज करने का आदेश हुआ। इसके बाद के कई वर्षों तक यह फाइल कहीं खो गई।
 
अपने पुलिसिया पद और पहुंच के मद में चूर राठौर ने रुचिका का पीछा नहीं छोड़ा। सादा पोशाकों में राठौर के मातहत पुलिसिया गुंडे रुचिका के पीछे पड़ गए। रुचिका को स्कूल छोड़ना पड़ा। रुचिका के छोटे भाई को मात्र 9 वर्ष की आयु में ही 11 आपराधिक मुकदमे में फंसा दिया गया।
 
उल्लेखनीय है कि यह सभी मुकदमे भी राठौर द्वारा रुचिका के साथ असफल बलात्कार की घटना के बाद ही दर्ज हुए। रुचिका का परिवार उसकी सुरक्षा करने में असमर्थ हो चला। पुलिसिया उत्पीड़न से त्रस्त रुचिका ने 29 दिसम्बर, 1993 को आत्महत्या कर ली।
 
अब तक घूसखोर बाबुओं द्वारा लापता करार दे दी गई फाइलों को ढूंढ़ने और कागजात जुटाने में श्रीमती मधु प्रकाश को सात साल लग गए।'' अंत में सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से सीबीआई ने भारतीय दंड संहिता की धारा-364, 376/511 (गरिमा और शील भंग का प्रयास) 'आरोप-पत्र' राठौर के विरुद्ध दाखिल कर दिया। मुकदमा चला, सजा हुई और जमानत भी हो गई लेकिन राठौर को एक दिन भी जेल नहीं जाना पड़ा किन्तु 'उत्सव शर्मा' जेल में है। कामुक एस पी एस राठौर को तब भी व्यवस्था बचा रही थी और जब न्याय से ऊबे नागरिक ने कानून अपने हाथ में लिया तब भी व्यवस्था राठौर की ही पक्षधर, पैरोकार और अंगरक्षक बनी दिखाई दे रही है।
 
ऊबा नागरिक और कर भी क्या सकता है? इस घुटन में राक्षस राठौर जैसों का दम्भ एक ऊबे नौजवान नागरिक ने तोड़कर बता दिया कि देश की तरुणाई में अभी भी पढ़ने और अच्छे काम के लिए लड़ने का जज्बा है। देश दोराहे पर है उसे तय करना ही होगा कि सैफ, चटवाल जैसे लोगों की जरूरत है या उत्सव शर्मा जैसे पढ़ने और लड़ने वाले नौजवानों की। देश के किसी कोने में ही सही पर भगत सिंह जिंदा है। धन्यवाद उत्सव!
 
पापी कौन, मनुज से उसका न्याय चुराने वाला
या कि न्याय छीनते विघ्न का शीश उड़ाने वाला
 
(Published in By-Line National Weekly News Magazine (Hindi & English) - in February 20, 2010 Issue)

Friday, February 5, 2010

Award and afterward

Look at the list of Padma award recipients this year. There is one 'cheat', one tannery owner, one extremist and one philanderer gracing the list. Who is this Sant Singh Chatwal? Why has he been awarded Padma Bhushan? What did our president and prime minister find so extraordinary in them to give them the celebrated civilian awards?

Sant  Singh Chatwal is known as a cheat in India and a businessman in USA. Now we can presume that this is the ultimate cheating by Chatwal. As per CBI and police records, Sant Singh Chatwal is a "proclaimed offender". The CBI hunted him for 14 years as "one of the most wanted criminals." India requested the USA to arrest him and extradite him to India.

Earlier, when he was a budding criminal he was arrested with his better half at Mumbai on February 2, 1997 and sent to jail on charges of cheating a bank. Once again he cheated Bank of India in India of Rs 28.32 crores and Bank of India New York branch of billions of dollars. The CBI filed charge-sheets against him in several cases but before they could prosecute him Sardar Manmohan Singh came to power and things changed their course. Now Chatwal is the proud recipient of a Padma Bhushan. Earlier he had been bestowed the Rajiv Gandhi Award, a private award instituted by Sardar Charan Singh Sapra, a Mumbai-based businessman and vice president of state Congress.  The Rajiv Gandhi Awards were later abandoned on the behest of Priyanka Gandhi.

The character of our government is as mysterious as of Chatwal. The Government of India has mysteriously withdrawn all cases against him and restrained CBI from filing any charge-sheet against him. Now, hopefully we must wait till the next occasion when Ottavio Quattrocchi will probably be getting Padma Bhushan for greasing the Bofors gun supply deal and thereby coming to the support of Indian defence. Probably the decision-maker and the decision-taker for these awards felt impressed by characters like Chatwal, Saif or any Mirza, but we must not keep quiet as this is grave injustice against persons like Dawood Ibrahim, Abdul Kareem Telgi and the departed soul of Harshad Mehta. We are culturally accursed to reward "Vibhishans" and now Afzal Guru who has been praying to the President for pardon, has reasons to feel optimistic for he too could be considered to have done 'distinguished service to the Nation' as per the value system prevalent in the PMO.

The list of awardees who  have done "such a distinguished service to the Nation" includes Saif Ali Khan who has been awarded only Padm Shri . His 'achievements' do not need as deep a research as for Chatwal. Saif Ali Khan and his father, a famous cricketer Mansoor Ali Khan Pataudi were found ineligible to retain even a gun licence as they had indulged in crime. So their gun licences issued by Gurgaon administration were cancelled. Saif had killed a black deer and faces prosecution in other cases too. He had abandoned his previous wife Amrita and a minor child. Apart from his criminal antecedent we all have seen him flirting with Kareena  Kapoor in a hyped pre-marital relationship which offends Indian ethos and basic tenets of our culture.
Another recipient of Padma Shri is Ghulam Mohammad Mir. He is from Jammu and Kashmir. His "distinguished service" finds mention nowhere except in police record. According to police record he was a terrorist, a proclaimed offender, tried for several heinous cases including mine blast, extortion and kidnapping.

Another recipient of Padma Shri needs a special mention. Unlike the earlier two examples, he is not a polluter of society but of environment. Mirza Irshad is a known expert in the tannery business and is one of the top leather exporters. His firm is one of the prime polluting units of Kanpur which is discredited as a major contributor to pollution in the Ganga. The tannery lobby at Kanpur had the last laugh at the end of the day of 26 January this year when Mirza procured the award. He is the man representing the trade.

There are 402 polluting tanneries in Kanpur out of which 220 were found extremely polluting the environment in general and Ganga in particular. It remains to be seen how the anti-pollution laws are enforced now. There is a long list of such tainted men. Is it a case of "birds of the same feather flocking together?" When the award itself is abused, we too have a right to abuse the awardees.

(Published in By-Line National Weekly News Magazine (Hindi & English) - in February 13, 2010 Issue)

गर्त में गरिमा

हे भारत की राष्ट्रपति! आपने हमें निराश नहीं किया। हमें आपसे यही आशा थी। अफजल गुरु को अभी आपने शायद अगले गणतंत्र पर पद्‌म भूषण देने के लिए बचाकर रखा है। दिग्वजय सिंह आजमगढ़ जाकर बटला हाउस में पुलिस की दिन-दहाड़े हुई मुठभेड़ में मारे गए आतंकियों की जन्मभूमि के दर्शन तो करेंगे, लेकिन इस मुठभेड़ में शहीद हुए दिल्ली पुलिस के इंस्पेक्टर मोहन चन्द्र शर्मा के घर भी ये कभी गए? नहीं। इनसे भी यही आशा थी। निश्चय ही हमारा गणतंत्र एक षड्‌यंत्र में बदल चुका है, जहां देशद्रोही पुरष्कृत और देश-प्रेमी तिरस्कृत हैं।

राष्ट्रीय गौरव के पुरस्कारों की सूची अब शातिरों का सूचकांक है। गौर करें एक ठग, एक चरित्रहीन अपराधी, एक  कातिल आतंकवादी, एक चमड़ी उधेड़कर व्यापार करने वाला अब हमारे राष्ट्रीय गौरव हैं। गुणों की इस मूल्यांकन पद्धति पर गौर करें। राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल और संत सिंह चटवाल के इतिहास में कुछ 'खास' है। दोनों में बड़ी समानता है। दोनों ने भारतीय बैंक प्रणाली की 'उस ओर' से समीक्षा कर समृद्धि पाई है। प्रधानमंत्री सरदार मनमोहन सिंह और सरदार संत सिंह चटवाल में भी एक उल्लेखनीय समानता है। दोनों ही परस्पर पृथक कारणों से देश की 'मोस्ट वांटेड' सरदार हैं।

अब जरा पद्‌मभूषण सरदार संत सिंह चटवाल द्वारा की गई 'राष्ट्र की उन उल्लेखनीय सेवाओं' का संदर्भ लें जो पुलिसिया दस्तावेजों में दर्ज हैं। ठगी के एक मामले में मुंबई पुलिस ने 2 फरवरी 1979 को चटवाल को गिरफ्तार कर हवालात में फुटबाल बनाकर जेल भेज दिया था। इसी ठगी प्रकरण में चटवाल की पत्नी भी उसके साथ गिरफ्तार की गई थी। उसने भारत में बैंक ऑफ इंडिया को करीब 29 करोड़ रुपए का चूना लगाया और बैंक ऑफ इंडिया की ही न्यूयार्क शाखा से भी कई मिलियन डॉलर की ठगी की। चटवाल का यह चरित्र है कि वह भारत में ठगी करता है और अमेरिका में रहता है। सीबीआई की सूची में वह 10 वर्षों तक 'मोस्ट वांटेड' इनामी अपराधी रहा है। उसकी गिरफ्तारी के लिए 'रेड कार्नर-नोटिस' भी पूरी दुनिया में जारी हो चुका है और अमेरिका से उसके प्रत्यर्पण की गुजारिश भी की गई थी। लेकिन गुजरे सात वर्षों में सब कुछ बदल गया। सरदार मनमोहन सिंह इधर प्रधानमंत्री बने उधर 'कुछ ऐसा हुआ' कि चटवाल के खिलाफ सीबीआई ने कार्यवाही करना ही बंद कर दिया। वह फिर से भारत में अपना जाल फैलाने लगा। इस बार उसने बैंक को नहीं पूरे राष्ट्र को ही ठग लिया। वह अब 'चार सौ बीस चटवाल' नहीं पद्‌मभूषण सरदार संत सिंह चटवाल बन चुका है।

पद्‌म श्री से सम्मानित हुए फिल्मी सितारे सैफ अली खान को सभी जानते ही होंगे। इस फिल्मी सूरमा की 'राष्ट्र के प्रति विशिष्ट सेवाओं' पर जब शोध किया गया तो पता चला कि वह मशहूर क्रिकेटर नवाब मंसूर अली खां पटौदी के बेटे हैं। उनकी मां शर्मिला टैगोर हैं। उन्होंने बड़ी बेरहमी से काले हिरन का शिकार किया था, जिसका मुकदमा अभी चल रहा है। उन्हें गुड़गांव के जिला प्रशासन ने बंदूक के लाइसेंस रखने योग्य न पाकर उनका लाइसेंस रद्‌द कर दिया है। अमृता नामक महिला से उन्होंने पहली घोषित शादी की थी, किन्तु उसे और अपनी एक संतान को लावारिस छोड़ यह किसी करीना कपूर का करीने से काम लगाने के कारण चर्चा में रहा। ब्याहता पत्नी और अपने बच्चों को लावारिस छोड़ देना, विवाहेतर संबंध, रखना, हिरनों को मारना यह सभी 'राष्ट्र की विशिष्ट सेवाएं हैं।' न समझ सके हो तो किसी 'सरदार' से समझो या 'असरदार' से समझो।

पद्‌म श्री पाकर खुद सम्मानित और हमें अपमानित करने वाले राष्ट्र के तीसरे विशिष्ट सेवक हैं- गुलाम मुहम्मद मीर। यह जम्मू-कश्मीर के इनामी आतंकवादी हैं। हत्या, लूट डकैती के दर्जनों मुकदमे इन पर दायर हैं। भारतीय सेना पर घात लगाकर हमले करने में दक्ष इस आतंकवादी को बारूदी सुरंग बनाने में महारथ हासिल है।

एक और पद्‌म श्री हैं मिर्जा इरशाद। कानपुर-उन्नाव में इनका जानवरों की खाल खींचकर चमड़ा बनाने का कारोबार है। कानपुर में मिर्जा इंटरनेशनल लिमिटेड नामक इनकी फर्म है, जो चमड़े का निर्यात करती है। इनकी तीन इकाइयां हैं। कानपुर में चमड़े का कारोबार करने वाली 402 टेनरी हैं, जो गंगा में प्रदूषण फैलाने के कारण खदेड़ी जा रही हैं और अब कुल 220 बची हैं। यह सभी बड़ों की हैं। प्रदूषण वालों और प्रशासन से बात करने के लिए इस खाल व्यापारी गिरोह ने अपना सरगना बनाकर अब पद्‌म श्री का तमगा खरीद लिया है। राष्ट्रीय गरिमा को गर्त में धकेलने वालों की एक लंबी सूची है। यह नहीं कि इस तरह के पापियों को पहली बार पुरस्कार दिए गए हों। इसके पहले भी ऐसा हुआ है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के स्वयंभू सूरमा अटल बिहारी वाजपेई जब प्रधानमंत्री थे तब सन्‌ 2000 में संडीला (हरदोई) की कुद्दैशिया बेगम को भी ऐसी पद्‌म श्री पुरस्कार दिया गया था। इनका इतिहास यह था कि उन्होंने संयुक्त प्रांत के अंग्रेज गवर्नर की रात अपनी विशिष्ट सेवाओं से गुलजार की थी। सुबह इस विशिष्ट सेवा से खुश होकर अंग्रेज गवर्नर ने इनको 'बेगम' की उपाधि और इनके मियां एजाज रसूल को मेहरबानी में 'नवाब' बना दिया। पाकिस्तान विभाजन की विभीषिका के दौरान यह सड़क पर उतर आईं और नारे लगाती घूमीं 'लड़कर लेंगे पाकिस्तान।' भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे संजय गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान के निदेशक डॉ. महेंद्र भंडारी भी चटवाल के ही चरित्र के थे।

मैं इन बेपनाह अंधेरों को/सुबह कैसे कहूं?
मैं इन नजारों का/अंधा तमाशबीन नहीं।
 
(Published in By-Line National Weekly News Magazine (Hindi & English) - in February 13, 2010 Issue)