Sunday, April 29, 2012

स्वतंत्रताके महास्वप्न का मध्यांतर है यह


"स्वतंत्रताके महास्वप्न का मध्यांतर है यह. एक-एक कर व्यवस्था के खम्बे गिर रहे हैं. वह विधायिका बाँझ है जो आज तक देश को देसी क़ानून भी न दे सकी. न्यायपालिका नपुंसक तो थी ही बेईमान भी है. उच्च न्यायालयों के जज कैसे बनते थे यह अभी तक अन्दर की बात थी पर अभिषेक मनु सिंघवी की सीडी के बाद सभी को पता चल गया है उच्च न्यायालयों के जजों का विस्तार विस्तर के जुगाड़ से होता है.सिघवी के पहले एक महेश्वरी जी भी उच्च न्यायालय के दर्जनों जज बिस्तरों के विस्तार और देह दर्शन पर बना चुके हैं.  कार्यपालिका यानी नौकरशाहीकर्महीन (कमीन) है यह सभी जानते है.... कहाँ रोयें ? मीडिया में ? मीडिया अब...मंडी बन चुकी है.उठो नया सृजन करो ! यह देश इन घोटालेबाजों के बाप का नहीं आप का भी है.शब्द युद्ध करो, शस्त्र युद्ध करो !!"  ----राजीव चतुर्वेदी


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