Wednesday, September 12, 2012

झांको उसमें अक्स तुम्हारा भी उभरेगा

"कविता पारिभाष है या आभाष ?---मुझे क्या मालुम
मैंने जो लिखा उसमें शब्द की तुकबंदीयाँ तो थीं नहीं
लय थी प्रलय की और उसमें विचारों का बसेरा था 
सांझ थी साझा हमारी और चुभता सा सबेरा था
देह से मैं दूर था पर स्नेह के तो पास था
मेरा प्यार भी था प्यार सा सुन्दर सलोना
एक गुडिया का खिलौना ...एक बच्चे का बिछौना ...एक हिरनी का हो छौना
प्यार का मेरे बहन उनवान लिखती थी
प्यार का मेरे खिड़कियों से झांकती खामोशियाँ अरमान रखती थीं
काव्य में मेरे महकते खेत थे,...खेतों में खडी इक भूख थी...गाय का बच्चा और उसकी हूक थी
नागफनी के फूल परम्परा से कांटे थे
घाव मिले थे हमको वह भी तो बांटे थे
कविता में मेरी तैरा करती नाव नदी में आशंकित सी
कविता में मेरे सर्द हवाएं थी...तूफानों को लिए समन्दर था
मेरे शब्दों में सिमटा था कोलाहल मेरे अन्दर था
कविता में मेरी आंधी थी...देवदार के पेड़, चिनारों की चीखें थीं
केसर की क्यारी में अंगारों की खेती थी
तितली थी फूलों पर बैठी आंधी से बेख़ौफ़ प्यार की परिभाषा सी
आंसू की वह बूँद पलक पर टिकी हुयी भूगोल दिखाती सी
मेरे आंसू की वह बूँद पलक पर कविता जैसी झलक रही है
झांको उसमें अक्स तुम्हारा भी उभरेगा."
----राजीव चतुर्वेदी   

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