Monday, December 31, 2012

ओस में शब्द भी कुछ नम से हो जाते हैं

"नींद थक जाती है मेरी पलकों पर जगते -जगते,
ओस में शब्द भी कुछ नम से हो जाते हैं
धूप महकती है मेरी क्यारी के फूलों की फुनगी पर
सुबह की चाय जब पीता हूँ मैं तो लगता है
मैं हूँ ...मैं हूँ ...और कोई भी नहीं
दूर कोहरे की रजाई के
वक्त के साथ मैले से हुए उस कोने से
झांकता है सूरज मेरे पड़ौसी सा
धूप ऊंचे मकानों से उतर कर दालानों तक बिखर जाती है
और इस रोशनी में लोग परछाईयों की पैमाइश करते हैं
मैं जानता हूँ तू नहीं है अब कहीं
गुमशुदा सी याद है तेरी
मेरी आँख के आंसू की उस बूँद में बसा भूगोल है
हिचकियों के साथ तेरी याद का भूकंप आता है
खिडकियों को खोल दो
धूप की धमकी से जो ओस सहमी है
तितलियाँ प्यार की परिभाषा अब पूछती है फूलों से
और मैं भी सोचता हूँ रातरानी की महक दिन में क्यों खामोश रहती है ?
नींद को रातों को जगा कर मैं भी पूछूंगा उम्मीद से
मैं अकेला हूँ तो हिचकियाँ आती हैं क्यूं ?
दस्तक कौन देता है ?
कह दो सफ़र में मिल सका तो मिल लूंगा
घर पर मुझे अकेला ही रहने दो
अभी मेरी जिन्दगी का सूरज शेष है
अभी मुझसे मुझ ही को बात करनी है
परछाईयों से पहचान तुम्हारी है पुरानी
तुम ही उनसे बात कर लेना .
" ----- राजीव चतुर्वेदी

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